‘समुद्र के बढ़ते जलस्तर और बारिश से संकट में मैंग्रोव हैबिटेट’

इंडिया साइंस वायर

पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी प्रक्रियाओं में मैंग्रोव सहायक होते हैं और तटीय पारिस्थितिक खतरों को कम करने में मदद करते हैं। लेकिन, जलवायु परिवर्तन, समुद्री जलस्तर में उतार-चढ़ाव और मानवीय गतिविधियों के कारण मैंग्रोव कवर दुनियाभर में तेजी से सिकुड़ रहा है। यही नहीं, मैंग्रोव पर्यावास (हैबिटेट) गंभीर रूप से संकटग्रस्त पारिस्थितिक तंत्रों में शामिल हो गए हैं।

एक नये अध्ययन में पता चला है कि वर्ष 2070 तक भारत के पूर्वी और पश्चिमी तट पर कई मैंग्रोव हैबिटेट क्षेत्र सिकुड़कर भूमि की ओर स्थानांतरित हो सकते हैं। मैंग्रोव हैबिटेट क्षेत्रों के सिकुड़ने के लिए शोधकर्ताओं ने बरसात और समुद्री जलस्तर में बदलाव को जिम्मेदार ठहराया है। पूर्वी तट पर चिलिका एवं सुंदरबन और पश्चिमी घाट पर द्वारका तथा पोरबंदर क्षेत्रों में किये गए एक अध्ययन में यह बात उभरकर आयी है।

पूर्वानुमान मॉडल पर आधारित यह अध्ययन भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST) से सम्बद्ध लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान (बीएसआईपी); अन्नामलाई विश्वविद्यालय, तमिलनाडु; एकेडेमी ऑफ साइंटिफिक ऐंड इनोवेटिव रिसर्च (AcSIR), गाजियाबाद; और इंस्टीट्यूट फॉर बायोडायवर्सिटी कन्जर्वेशन ऐंड ट्रेनिंग, बेंगलुरु के शोधकर्ताओं ने किया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन मैंग्रोव आवास क्षेत्रों के संरक्षण के लिए प्रभावी रणनीति विकसित करने में उपयोगी हो सकता है।

शोधकर्ताओं ने दो मैंग्रोव प्रजातियों की अतीत और वर्तमान स्थिति के अध्ययन और भविष्य के पूर्वानुमान के लिए समूह प्रजाति वितरण मॉडल का उपयोग किया है। उन्होंने मैंग्रोव के उपयुक्त प्राकृतिक पर्यावास क्षेत्रों के क्षरण और भूमि की ओर इन क्षेत्रों के खिसकने का अनुमान लगाया है। इसके साथ ही, अध्ययन में, अतीत के मैंग्रोव आवास क्षेत्र की सीमा का आकलन भी किया है जिसकी पुष्टि जीवाश्म पराग (Fossil Pollen) डेटा से की गई है।

  शोधकर्ताओं का कहना है कि मैंग्रोव पर्यावास (हैबिटेट) क्षेत्रों के संरक्षण की आवश्यकता वाली पट्टियों की समय रहते पहचान जरूरी है। इसके लिए, भू-स्थानिक मॉडलिंग तकनीकों का विकास समय की माँग है, जो तटरेखा पर समृद्ध मैंग्रोव जैव-विविधता वाले क्षेत्रों के संरक्षण में विशेष रूप से उपयोगी हो सकती है। इस अध्ययन के निष्कर्ष तटीय आर्द्रभूमियों के संरक्षण और भारतीय समुद्र तट के साथ-साथ तटीय वनस्पतियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए चिह्नित किये गए संवेदनशील स्थानों में शमन और अनुकूलन रणनीतियों के कार्यान्वयन में भी उपयोगी हो सकते हैं।

भारतीय समुद्री तटरेखा जलवायु और समुद्री जलस्तर में परिवर्तन के प्रभाव के प्रति संवेदनशील है। इसके बावजूद, तटीय आर्द्रभूमि की प्रजातियों के आकलन एवं प्रबंधन के उद्देश्य से बहुत प्रयास नहीं किये गए हैं। मैंग्रोव पर्यावास (हैबिटेट) क्षेत्रों के मानचित्रण के लिए सीमित शोध ही हुए हैं। इस अंतर को भरने के लिए, अध्ययन में तटीय आर्द्रभूमि प्रजातियों के रूप में मैंग्रोव पर जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभाव को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने मैंग्रोव प्रजातियों के लोकेशन पॉइंट्स एकत्र किए हैं, और वर्ल्डक्लिम डेटाबेस से  पर्यावरणीय डेटा प्राप्त किया है। अलग-अलग समय और क्षेत्र में विशिष्ट जलवायु परिस्थितियों में इन प्रजातियों के संभावित वितरण तथा प्राकृतिक पर्यावास उपयुक्तता के पूर्वानुमान के लिए एन्सेम्बल स्पीशीज मॉडल का उपयोग किया गया है।

यह अध्ययन भारत में प्रमुख मैंग्रोव प्रजातियों के उपयुक्त प्राकृतिक पर्यावास (हैबिटेट) का मानचित्रण करके तटीय आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिए एक मूल्यवान संसाधन उपलब्ध कराता है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि संरक्षित क्षेत्रों में प्रभावी बफर जोन स्थापित करने से मुख्य संरक्षित क्षेत्र पर गैर – संरक्षित क्षेत्रों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। उनका कहना है कि प्रभावी संरक्षण उपायों से मैंग्रोव प्रजातियों के विकास के साथ-साथ संवेदनशील क्षेत्रों को अत्यधिक उपयुक्त आवास क्षेत्रों में रूपांतरित किया जा सकता है ।

यह अध्ययन, शोध पत्रिका इकोलॉजिकल इन्फार्मेटिक्स में प्रकाशित किया गया है। अध्ययनकर्ताओं में पुजारिनी सामल, ज्योति श्रीवास्तव, पूजा नितिन सर्राफ, बिपिन चार्ल्स और सिंगारसुब्रमण्यम एसआर शामिल हैं। (इंडिया साइंस वायर)

error: Content is protected !!