क्यूरेटिव रिट याचिका
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी असाधारण शक्तियों का उपयोग करते हुए 2021 के अपने फैसले को रद्द कर दिया और दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन द्वारा दिल्ली एयरपोर्ट मेट्रो एक्सप्रेस प्राइवेट लिमिटेड (DAMEPL) को ₹7,687 करोड़ भुगतान करने के आदेश से राहत दी।
यह फैसला एक ओर न्यायालय के क्यूरेटिव ज्यूरिस्डिक्शन के अस्तित्व की पुष्टि करता है, और दूसरी ओर, अंतिम निर्णय और वास्तविक या अधिष्ठायी न्याय (substantive justice) के बीच संभावित संघर्ष को दर्शाता है।
इस मामले में, एक आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल ने 2017 में DAMEPL के पक्ष में फैसला सुनाया था, जिसे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से दिल्ली हवाई अड्डे तक लाइन के निर्माण, रखरखाव और संचालन का ठेका मिला था।
क्यूरेटिव रिट याचिका
क्यूरेटिव रिट याचिका (Curative writ petition) संविधान में निर्धारित नहीं है। यह एक न्यायिक इनोवेशन है, जिसे देश की शीर्ष अदालत के फैसले में “गंभीर अन्याय” को दूर करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा (2002) मामले में क्यूरेटिव रिट की अवधारणा को स्पष्ट किया था।
क्यूरेटिव पिटीशन एक असाधारण उपाय है, क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने ही फैसले की समीक्षा करने से इनकार करने के बाद दायर की जाती है। ऐसी याचिका पर विचार करने के लिए केवल दो मुख्य आधार हैं: प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकना और घोर अन्याय को रोकना।
वास्तव में क्यूरेटिव पिटीशन एक ऐसा तरीका है जिसमें कोर्ट को रिव्यू पिटीशन के खारिज होने के बाद भी अपने फैसले की समीक्षा और संशोधन करने के लिए कहा जाता है। इसका संविधान में उल्लेख नहीं है।
क्यूरेटिव पिटीशन की उत्पत्ति सुप्रीम कोर्ट द्वारा रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा और अन्य, 2002 (Rupa Ashok Hurra Vs Ashok Hurra & another, 2002) मामले में निर्धारित सिद्धांतों से मानी जाती है।
अदालत ने फैसला सुनाया कि एक क्यूरेटिव पिटीशन पर विचार तभी किया जा सकता है यदि याचिकाकर्ता यह स्थापित करता है कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है, और आदेश पारित करने से पहले अदालत ने उसकी बात नहीं सुनी।
यह याचिका तब भी स्वीकार किया जा सकता है यदि यह सामने आये कि निर्णय देने वाले जजों में से कोई पूर्वाग्रह से ग्रस्त था और उसका अपना हित उस केस में शामिल था जिसका खुलासा नहीं हो पाया था।
सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि क्यूरेटिव पिटीशन नियमित होने के बजाय दुर्लभ होनी चाहिए, और सावधानी के साथ विचार किया जाना चाहिए। वास्तव में Curative Petition शब्द का जन्म ही Cure शब्द से है, जिसका मतलब होता है उपचार।
क्यूरेटिव पिटीशन में यह बताना ज़रूरी होता है कि आख़िर वो किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती कर रहा है। क्यूरेटिव पिटीशन किसी सीनियर वकील द्वारा सर्टिफाइड होना ज़रूरी होता है, जिसके बाद इस पिटीशन को सुप्रीम कोर्ट के तीन सीनियर मोस्ट जजों और जिन जजों ने फैसला सुनाया था (यदि वे उपलब्ध हों), उनके पास भी भेजा जाना ज़रूरी होता है। अगर इस बेंच के ज़्यादातर जज इस बात से सहमत होते हैं कि मामले की दोबारा सुनवाई होनी चाहिए तब क्यूरेटिव पिटीशन को वापस उन्हीं जजों के पास भेज दिया जाता है जिसने सुनवाई की है।