राइट टू साइलेंस

हाल में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सभी आरोपियों को चुप रहने का अधिकार (Right to silence) है और जांच करने वाला अधिकारी उन्हें बोलने या अपराध स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं।

शीर्ष अदालत ने इस बात पर बल दिया कि संविधान प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-दोषारोपण (self-incrimination) के खिलाफ अधिकार देता है।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की पीठ ने कहा कि जांच में “सहयोग” का मतलब “स्वीकारोक्ति” नहीं हो सकता है, और इस प्रकार जांच एजेंसी आरोपियों के खिलाफ सिर्फ इसलिए मामला नहीं बना सकती क्योंकि वे चुप रहना चुनते हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नंदिनी सत्पथी बनाम दानी (पी.एल.) अन्य मामले (1978) में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) और CrPC की धारा 161 के संबंध में पुलिस पूछताछ के दौरान आरोपी व्यक्ति के “चुप रहने के अधिकार” के संबंध में एक व्याख्या दी।

भारतीय संविधान के भाग III (मौलिक अधिकार) में अनुच्छेद 20 (3) कहता है, “किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को खुद के खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा।” दोषी साबित होने तक निर्दोष माने जाने का अधिकार, और पूछताछ के दौरान चुप रहने का अधिकार  (Right to silence)  उपर्युक्त अधिकार से ही उत्पन्न हुआ है।

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