सुप्रीम कोर्ट ने SC और ST उप-वर्गीकरण की अनुमति दी

सुप्रीम कोर्ट की सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1 अगस्त को अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) आरक्षण कोटा कैसे संचालित हो सकता है, इसे फिर से परिभाषित किया। 1950 में संविधान में आरक्षण पेश किए जाने के बाद पहली बार ऐसा किया गया है।

6:1 बहुमत के फैसले में, संविधान पीठ ने राज्यों को SC/ST श्रेणियों के भीतर सबसे पिछड़े समुदायों को – निश्चित उप-कोटा के माध्यम से – व्यापक सुरक्षा के उद्देश्य से  उप-वर्गीकरण (sub-classifications within the SC and ST) बनाने की अनुमति दी।

फैसले का मतलब है कि राज्य एससी श्रेणियों के बीच अधिक पिछड़े लोगों की पहचान कर सकते हैं और कोटे के भीतर अलग कोटा के लिए उन्हें उप-वर्गीकृत कर सकते हैं।

पीठ के सात में से चार न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि सरकार को अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) श्रेणी की तरह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए भी “क्रीमी लेयर सिद्धांत” लागू करना चाहिए।

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने उल्लेख किया कि कैसे इंद्रा साहनी मामले में नौ न्यायाधीशों की पीठ ने पिछड़े वर्ग को नागरिकों के ‘पिछड़े’ और ‘अधिक पिछड़े’ वर्ग में वर्गीकृत करना संवैधानिक माना था। अनुसूचित जातियों पर भी यही सिद्धांत लागू होगा।

इस निर्णय के साथ ही शीर्ष अदालत ने ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 2004 में दिए गए फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि इस तरह का उप-वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि एससी/एसटी “सजातीय” वर्ग हैं।

गौरतलब है कि संविधान का अनुच्छेद 341(1) राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से, अस्पृश्यता के ऐतिहासिक अन्याय से पीड़ित “जातियों, नृजातियों या आदिवासियों” को अनुसूचित जाति (SC) के रूप में सूचीबद्ध करने की अनुमति देता है।

SC समुदाय को शिक्षा और सरकारी नौसारी में संयुक्त रूप से 15% आरक्षण दिया जाता है।

अनुच्छेद 341(2) में कहा गया है कि केवल संसद ही “किसी भी जाति, नृजाति या आदिवासी” को एससी की सूची में शामिल या बाहर कर सकती है.

अनुच्छेद 16(4) राज्यों को “नागरिकों के किसी ऐसे पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों में आरक्षण प्रदान करने की विशिष्ट शक्ति देता है, जिसका राज्य की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।” 

पिछले कई सालों से राज्य यह तर्क देते रहे हैं कि आरक्षण के बावजूद कुछ जातियों का प्रतिनिधित्व अन्य प्रमुख एससी और एसटी की तुलना में बहुत कम है। नतीजतन, उन्होंने इन जातियों के लिए मौजूदा 15% एससी कोटे के भीतर ही अलग कोटा लागू करने का प्रस्ताव दिया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लाभ समान रूप से वितरित किए जाएं।

राज्य द्वारा मौजूदा आरक्षण को ‘उप-वर्गीकृत’ किए जाने के शुरुआती उदाहरणों में से एक में, पंजाब सरकार ने 1975 में एक सर्कुलर जारी किया था जिसमें उस समय के 25% एससी आरक्षण को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। पहली श्रेणी में बाल्मीकि और मज़हबी सिख समुदायों के लिए विशेष रूप से सीटें आरक्षित की गईं, जिससे उन्हें शिक्षा और सरकारी रोजगार में आरक्षण के लिए पहली वरीयता मिली। दूसरी श्रेणी में अन्य सभी एससी समुदाय शामिल थे। इससे काफी आक्रोश पैदा हुआ क्योंकि बाल्मीकि और मज़हबी सिख राज्य में आर्थिक और शैक्षणिक रूप से सबसे पिछड़े समुदायों में से दो माने जाते थे।

लगभग 30 वर्षों तक लागू रहने के बाद, सर्कुलर को 2004 में कानूनी पेचीदगी का सामना करना पड़ा जब सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने 2000 में आंध्र प्रदेश द्वारा पेश किए गए ऐसी ही कानून को खारिज कर दिया। ईवी चिन्नैया मामले में, आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम, 2000 को संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन पाया गया। कानून को संविधान के अनुच्छेद 341 का भी उल्लंघन करने वाला पाया गया, जो आरक्षण लाभ देने हेतु प्रत्येक राज्य के लिए एससी की सूची अधिसूचित करने की अनुमति राष्ट्रपति को देता है। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 341 (2) में कहा गया है कि केवल संसद ही एससी की इस सूची में “किसी भी जाति, नस्ल या जनजाति” को शामिल या बाहर कर सकती है।

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