सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी, पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करने को बरकरार रखा
सुप्रीम कोर्ट ने 25 नवंबर को अपने एक निर्णय में संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी, पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करने को बरकरार रखा। यह आदेश 2020 में दायर याचिकाओं पर आया है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क
याचिका में 1976 के 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को जोड़ने की वैधता को चुनौती दी गई थी।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि ये शब्द पूर्वव्यापी प्रभाव से जोड़े गए। इनका तर्क था कि संविधान की प्रस्तावना में 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा संविधान को अपनाने की तिथि का उल्लेख है जबकि ये शब्द 1976 में जोड़े गए जो संविधान के साथ धोखाधड़ी है।
इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि संविधान सभा ने चर्चा के दौरान ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द को जानबूझकर छोड़ दिया गया था और ‘समाजवादी’ शब्द ने निर्वाचित सरकार द्वारा आर्थिक नीति के अन्य विकल्प को अपनाने के मार्ग को बाधित किया, जबकि सरकार लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए वह कोई भी विकल्प भी चुनने के लिए स्वतंत्र है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि प्रस्तावना संविधान का एक अविभाज्य हिस्सा है। यह भी कि संसद के पास अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करने की निर्विवाद शक्ति है।
संशोधन करने की संसद की शक्ति प्रस्तावना तक विस्तारित है।
न्यायालय ने प्रस्तावना में पूर्वव्यापी संशोधन की पुष्टि करते हुए कहा कि संविधान की प्रस्तवना को अपनाने की तिथि अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन करने की संसद शक्ति को कम नहीं करती है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविधान एक “लिविंग डॉक्यूमेंट” है, और समय की आवश्यकताओं के अनुसार इसमें बदलाव किए जा सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय संदर्भ में ‘समाजवाद’ का अर्थ कल्याणकारी राज्य के रूप में कार्य करने की प्रतिबद्धता है।