‘ग्रुप ऑफ कंपनीज’ डॉक्ट्रिन
सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने निर्णय दिया है कि ‘ग्रुप ऑफ कंपनीज’ डॉक्ट्रिन (group of companies’ doctrine) के तहत एक मध्यस्थता समझौता (arbitration agreement), समझौता पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले फर्मों पर भी बाध्यकारी हो सकता है।
यह सिद्धांत एक आर्बिट्रेशन समझौते को एक ऐसे फर्म पर बाध्यकारी बनाता है, जिसने समझौता पर भले ही हस्ताक्षर नहीं किया हो, लेकिन कंपनियों के ऐसे समूह का सदस्य है जो समझौते का एक पक्षकार है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने माना कि इस सिद्धांत को भारतीय आर्बिट्रेशन रूल्स और क़ानूनों में बनाए रखा जाना चाहिए तथा इसकी उपयोगिता पर विचार करते हुए और कई पक्षों और समझौतों से जुड़े जटिल लेनदेन के संदर्भ में पक्षकारों के इरादे का निर्धारण किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट खंडपीठ ने कहा कि इस सिद्धांत को 1996 के मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (Arbitration & Conciliation Act) के प्रासंगिक प्रावधानों में पढ़ा जा सकता है और मध्यस्थता अधिनियम की धारा 7 के साथ पढ़ी जाने वाली धारा 2 (1) (H) के तहत “पक्षकारों” की परिभाषा में हस्ताक्षरकर्ता और गैर-हस्ताक्षरकर्ता, दोनों पक्ष शामिल हैं।