सांसद या विधायक सदन में रिश्वतखोरी के मामले में कानूनी कार्रवाई से छूट का दावा नहीं कर सकते-सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने 4 मार्च को फैसला सुनाया कि संसद सदस्य (सांसद) और विधान सभा के सदस्य (विधायक) वोट देने या सदन में एक विशेष तरीके से भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के लिए मुकदमा यानी कानूनी कार्रवाई से छूट का दावा नहीं कर सकते।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 105(2) सांसदों को संसद या किसी संसदीय समिति में कही गई किसी भी बात या दिए गए वोट के संबंध में कानूनी कार्रवाई से छूट प्रदान करता है।
इसी तरह, अनुच्छेद 194(2) विधायकों को सुरक्षा प्रदान करता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य मामले में अपने 1998 के फैसले को खारिज कर दिया और कानून लागू करने वाली एजेंसियों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (अधिनियम) के तहत रिश्वत के मामलों में सांसदों/विधायकों के खिलाफ मुकदमा शुरू करने की अनुमति दे दी है।
दो-स्तरीय परीक्षण
अनुच्छेद 105 और 194 के उद्देश्य पर विस्तार से बताते हुए, मुख्य न्यायाधीश ने बताया कि दो-स्तरीय परीक्षण में खरे उतरने वाले विशेषाधिकारों को ही न्यायिक कार्रवाई से छूट मिल सकती है; एक तो यह कि जिस विशेषाधिकार का दावा किया गया है वह सदन के सामूहिक कामकाज से जुड़ा होना चाहिए’ और दूसरा यह कि वह विशेषाधिकार एक सांसद या विधायक के आवश्यक कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित होना चाहिए।
ऐसे में संसद या विधानसभा में वोट या भाषण के संबंध में रिश्वतखोरी के आरोप पर संवैधानिक विशेषाधिकार के तहत मुकदमा से छूट दोहरे परीक्षण की शर्त को पूरा नहीं करते ।
राज्यसभा के चुनावों पर भी समान रूप से लागू
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि संसदीय या विधायकों को मिले विशेषाधिकारों के संबंध में यह निर्णय राज्यसभा के चुनावों और देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की नियुक्ति के लिए होने वाली चुनावों पर भी समान रूप से लागू होंगे। इस तरह नए निर्णय ने कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ (2006) के निर्णय को भी खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि राज्यसभा के चुनाव विधायिका की कार्यवाही नहीं हैं, बल्कि मताधिकार का एक मात्र अभ्यास हैं और इसलिए अनुच्छेद 194 के तहत संसदीय विशेषाधिकारों के दायरे से बाहर हैं।