लोक सेवक पर मुकदमा चलाने की मंजूरी

हाल में कर्नाटक के मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में जांच शुरू करने की राजयपाल की मंजूरी के बाद भ्रष्टाचार का मामला चर्चा में रहा।  किसी लोक सेवक पर मुकदमा चलाने की मंजूरी भ्रष्टाचार विरोधी कानून की अनिवार्य विशेषता रही है। इसका उद्देश्य लोक सेवकों को उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किए गए कार्यों और निर्णयों के लिए कष्टप्रद और दुर्भावनापूर्ण अभियोजन से बचाना है।

दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 197 में कहा गया है कि कोई भी अदालत किसी लोक सेवक के खिलाफ मामले का संज्ञान तब तक नहीं ले सकती जब तक कि उस व्यक्ति को हटाने के लिए सक्षम अथॉरिटी मंजूरी न दे।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 6 में भी इसी तरह का प्रावधान है। हालाँकि तब स्वीकृति की आवश्यकता उस अवधि तक सीमित थी जब तक लोक सेवक पद पर था, और, यदि व्यक्ति उस पद पर नहीं है तो उसके खिलाफ मामले की जांच के लिए स्वीकृति की आवश्यकता नहीं थी।

CrPC और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (PCA) दोनों के तहत, राज्य और केंद्र सरकारों को अपने-अपने कर्मचारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देने का अधिकार था। यह प्रावधान PCA, 1988 की धारा 19 में संरक्षित किया गया था।

CrPC की जगह लागू भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 218 स्वीकृति के प्रावधानों को बरकरार रखती है।

जब 2018 में PCA में संशोधन किया गया, तो एक नया प्रावधान पेश किया गया जिसके तहत जाँच शुरू करने के लिए भी सरकार की स्वीकृति की आवश्यकता है।

जहां धारा 17A के तहत, जाँच शुरू करने के लिए उपयुक्त प्राधिकारी की स्वीकृति आवश्यक है, वहीं धारा 19 के तहत किसी भी अदालत द्वारा भ्रष्टाचार के आरोप पत्र या शिकायत का संज्ञान लेने के लिए भी स्वीकृति एक पूर्व-शर्त है।

2018 के संशोधन की एक और विशेषता यह है कि यह पदासीन और पूर्व लोक सेवकों, दोनों  पर लागू होता है।

CrPC में मंजूरी से संबंधित प्रावधानों में आम तौर पर राज्य सरकार और केंद्र सरकार को अपने-अपने सरकारों द्वारा नियोजित लोगों के लिए मंजूरी देने का अधिकार बताया गया है। हालांकि, PCA के 1947 और 1988 दोनों संस्करणों में एक सेक्शन है जिसमें कहा गया है कि “किसी अन्य व्यक्ति” के मामले में, मंजूरी उस प्राधिकारी द्वारा दी जाएगी जो पद पर मौजूद लोक सेवक को हटाने में सक्षम है।

जिस तरह राज्यपाल को मुख्यमंत्री को बर्खास्त करने की शक्ति प्राप्त है, उसी तरह राज्यपाल को मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी देने पर विचार करने का अधिकार माना जाता है।

ए.आर. अंतुले  मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ऐसे मामले में राज्यपाल को अपने विवेक से कार्य करना चाहिए न कि मंत्रिपरिषद की सलाह पर। मध्य प्रदेश विशेष पुलिस प्रतिष्ठान बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य (2004) में भी सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी पुष्टि की।

error: Content is protected !!