सर्वोच्च न्यायालय ने तुच्छ जनहित याचिकाओं (PIL) पर चिंता जाहिर की
सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने लगातार आ रही तुच्छ जनहित याचिकाओं (frivolous PIL petitions) पर नाराजगी जताई है। कोर्ट के अनुसार अधिकांश जनहित याचिकाओं (Public Interest Litigations) में बेबुनियाद मुद्दों को उठाया जाता है। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और हिमा कोहली की अवकाशकालीन पीठ ने शुरू में वादी को 18 लाख रुपये का भुगतान करने के लिए कहा, यानी मामले की 18 मिनट की सुनवाई के लिए प्रत्येक मिनट के लिए 1 लाख रुपये। हालाँकि, अदालत ने बाद में, अपने आदेश में, वादी के वकील के अनुरोध पर राशि को घटाकर 2 लाख रुपये कर दिया।
- अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा कि ‘‘मशरूम की तरह जनहित याचिकाओं की वृद्धि’’ चिंता का विषय है और इनमें से तुच्छ जनहित याचिकाओं को शुरुआत में ही दबा देना चाहिए ताकि कुछ जरूरी गतिविधियां प्रभावित न हों।
- पीठ ने कहा कि ऐसी कई याचिकाओं में, कोई भी जनहित शामिल नहीं होते है। याचिकाएं या तो प्रचार हित याचिकाएं या व्यक्तिगत हित याचिकाएं होती हैं जिनका जन हित से संबंध नहीं होता है।
एस्टीम प्रॉपर्टीज प्राइवेट लिमिटेड बनाम चेतन कांबले, 2022
- एस्टीम प्रॉपर्टीज प्राइवेट लिमिटेड बनाम चेतन कांबले के मामले में फरवरी 2022 के फैसले में, भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना की अगुवाई वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने जनहित याचिकाओं में अच्छे और बुरे का संतुलित दृष्टिकोण रखा था।
- इस फैसले में, शीर्ष अदालत ने स्वीकार किया था कि “हजारों तुच्छ याचिकाएं दायर की जाती हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों दोनों के लिए बोझिल साबित होता है”।
जयपुर शहर हिंदू विकास समिति बनाम राजस्थान राज्य, 2014
- जयपुर शहर हिंदू विकास समिति बनाम राजस्थान राज्य मामले ने अदालत ने इस बात पर जोर दिया था कि इस तरह की याचिकाएं “उन लोगों को न्याय दिलाती हैं जो अज्ञानता, अशिक्षा, अशिक्षा की वजह से न्याय पाने में असमर्थ हैं।
उत्तरांचल राज्य बनाम बलवंत सिंह चौफल फैसले (2010) मामला
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तरांचल राज्य बनाम बलवंत सिंह चौफल फैसले (2010) में संवैधानिक अदालतों को वास्तविक जनहित याचिकाओं को तुच्छ याचिकाओं से अलग करने में मदद करने के लिए आठ निर्देश भी जारी किए थे। इस निणय ने हर उच्च न्यायालय को वास्तविक जनहित याचिकाओं को प्रोत्साहित करने और दुष्प्रेरित लोगों पर अंकुश लगाने के लिए अपने स्वयं के नियम बनाने के लिए कहा था। इनमें से कुछ निर्देशों में निम्नलिखित शामिल हैं:
- याचिका पर विचार करने से पहले याचिकाकर्ता की साख/विश्वसनीयता की पुष्टि करें;
- याचिका की कंटेंट की सचाई की जाँच करें;
- यह सुनिश्चित करें कि याचिका में “व्यापक सार्वजनिक हित, गंभीरता और तात्कालिकता” के मुद्दे शामिल हैं जिन्हें प्राथमिकता देने की आवश्यकता है;
- यह सुनिश्चित करें कि जनहित याचिका के पीछे कोई व्यक्तिगत लाभ या परोक्ष उद्देश्य नहीं है;
- यह सुनिश्चित करें कि इसका उद्देश्य वास्तविक सार्वजनिक नुकसान या सार्वजनिक जोखिम का निवारण करना है।
जनहित याचिका (PIL) की अवधारणा
- जनहित याचिका की अवधारणा भारत के संविधान के अनुच्छेद 39 A में निहित सिद्धांतों के अनुकूल है ताकि कानून की मदद से सामाजिक न्याय की त्वरित रक्षा की जा सके और उसे विस्तारित किया जा सके।
- जनहित याचिका की अवधारणा के बीज प्रारंभ में भारत में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर द्वारा 1976 में मुंबई कामगार सभा बनाम अब्दुल थाई में बोए गए थे।
- जनहित याचिका का पहला रिपोर्ट किया गया मामला हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979) मामला था। इसमें जेलों और विचाराधीन कैदियों की अमानवीय स्थितियों पर ध्यान केंद्रित किया गया, जिसके कारण 40,000 से अधिक विचाराधीन कैदियों को रिहा किया गया।
- जनहित याचिका आंदोलन के एक नए युग की शुरुआत न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती द्वारा एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ के मामले में 1981 में दिए गए निर्णय से हुई।
- इस मामले में यह माना गया था कि “सार्वजनिक या सोशल एक्शन ग्रुप का कोई भी सदस्य ऐसे व्यक्तियों के कानूनी या संवैधानिक अधिकार के उल्लंघन के मामले में उच्च न्यायालयों (अनुच्छेद 226 के तहत) या सर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद 32 के तहत) के रिट क्षेत्राधिकार के तहत राहत की मांग कर सकता है जो सामाजिक या आर्थिक या किसी अन्य अक्षमता के कारण न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटा सकते हैं।
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