Guilty by Association: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता मात्र से कोई व्यक्ति UAPA 1967 के तहत दोषी हो सकता है
सुप्रीम कोर्ट ने भारत में फौजदारी न्याय प्रणाली में “संबद्धता के आधार पर अपराध बोध” के सिद्धांत (doctrine of “guilt by association) को फिर से बहाल किया कर दिया है और निर्णय दिया है कि किसी प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता मात्र से कोई व्यक्ति देश के आतंकवाद विरोधी कानून – गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA), 1967 के तहत दोषी हो सकता है। बता दें कि इससे पहले वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने तीन निर्णयों में इस सिद्धांत को खारिज कर दिया था।
क्या है मामला?
न्यायमूर्ति एमआर शाह की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने धारा 10(a)(i) की संवैधानिक वैधता और औचित्य की पुष्टि की है, जो किसी प्रतिबंधित संगठन की लगातार सदस्यता को दंडनीय अपराध बनाते हुए दो साल तक की जेल की सजा का प्रावधान करता है।
वर्ष 2011 में, शीर्ष अदालत ने तीन अलग-अलग मामलों (अरूप भुइयां, श्री इंद्र दास और रानीफ मामले) में निर्णय दिया था कि किसी प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता होने भर से अभियुक्तों को आपराधिक दायित्व के आरोप से नहीं जोड़ा जा सकता जब तक कि उस प्रतिबंधित संगठन के गैरकानूनी कार्य को आगे बढ़ाने के लिए विशिष्ट मंशा संबंधी कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं हो।
ऐसा निर्णय देते समय तब, सर्वोच्च न्यायालय ने अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों पर बहुत अधिक भरोसा किया था,जहां “संबद्धता के आधार पर अपराधबोध” के सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया गया था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हवाला दिया था।
केंद्र सरकार ने 2011 के फैसलों की समीक्षा की मांग करते हुए शिकायत की कि इन मामलों की सुनवाई के समय दो-न्यायाधीशों की बेंच को केंद्र के विचारों का जानना अनिवार्य था, बल्कि टाडा और UAPA प्रावधान के तहत प्रतिबंधित संगठनों के साथ गैर कानूनी संबंध रखने वालों पर मुकदमा चलाने में समस्या आयी।
अब नवीनतम निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के तर्क को स्वीकार किया कि UAPA की धारा 10(A)(i) नागरिकों द्वारा संगठन या संघ बनाने के अधिकार, जो अभियक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार का हिस्सा है, को चोट नहीं पहुँचाती है। न्यायालय के मुताबिक राष्ट्र की रक्षा के लिए यह एक उचित प्रतिबंध है।
अदालत ने कहा कि मौलिक अधिकार भी निरपेक्ष नहीं हैं बल्कि युक्तियुक्त प्रतिबंधों के अधीन हैं। अदालत ने अनुच्छेद 19(4) का हवाला दिया जिसमें प्रावधान किया गया है कि नागरिकों के एसोसिएशन या यूनियन बनाने का अधिकार पर सरकार द्वारा भारत की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा तथा लोक व्यवस्था और नैतिकता के आलोक में “उचित प्रतिबंध” लगाया जा सकता है।
हालांकि अदालत ने स्पष्ट किया कि जो व्यक्ति संगठन छोड़ चुके थे और उस समय सदस्य नहीं थे जब इसे गैरकानूनी घोषित किया गया था, उन्हें UAPA की धारा 10 (A) (i) के तहत उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।
तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने यह भी कहा कि वर्ष 2011 के निर्णय में अमेरिकी कानून का आँख बंद करके पालन किया गया था और 19(4) के तहत लगाए गए उचित प्रतिबंधों को ध्यान में नहीं रखा गय था।