धर्मांतरण करने वाले दलितों के SC दर्जा पर विचार करने के लिए पूर्व CJI के.जी. बालाकृष्णन की अध्यक्षता में पैनल का गठन

भारत सरकार ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन (Justice K.G. Balakrishnan) की अध्यक्षता में एक समिति गठित की है जो यह जांच करेगी कि क्या ऐसे दलितों को अनुसूचित जाति (SC) का दर्जा दिया जा सकता है, जिन्होंने वर्षों से सिख धर्म या बौद्ध धर्म के अलावा अन्य धर्मों को अपना लिया है।

समिति के कार्य

तीन सदस्यीय आयोग में यूजीसी की सदस्य प्रोफेसर सुषमा यादव और सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी रविंदर कुमार जैन भी शामिल हैं। यह समिति दो साल के भीतर रिपोर्ट देगी।

सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग ने कहा है कि आयोग उन बदलावों पर भी गौर करेगी जो एक SC व्यक्ति द्वारा दूसरे धर्म में परिवर्तित होने के बाद आता है। इसके अलावा यह SC के रूप में शामिल करने के सवाल पर पड़ने वाले प्रभाव की भी जांच करेगी।

बता दें कि दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों को शामिल करने और SC के रूप में शामिल करने के लिए धर्म को मानदंड के रूप में हटाने की मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है।

संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950

वर्तमान में, संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 (Constitution (Scheduled Castes) Order, 1950) केवल हिंदू, सिख या बौद्ध समुदायों से संबंधित लोगों को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत करने का प्रावधान करता है।

जब Act अधिनियमित किया गया, तो आदेश ने केवल हिंदू समुदायों को सामाजिक अक्षमताओं और अस्पृश्यता के कारण होने वाले भेदभाव के आधार पर अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत करने की अनुमति दी।

इस आदेश में 1956 में उन दलितों को शामिल करने के लिए संशोधित किया गया था, जो सिख धर्म में परिवर्तित हो गए थे और 1990 में एक बार फिर उन दलितों को शामिल करने के लिए संशोधित किया गया जो बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो गए थे।

दोनों संशोधन क्रमशः 1955 में काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट और 1983 में अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर उच्चाधिकार प्राप्त पैनल (HPP) की रिपोर्ट के आधार पर की गई थी।

भारत सरकार का तर्क

केंद्र सरकार ने 2019 में दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति के सदस्यों के रूप में शामिल करने की संभावना को खारिज कर दिया। सरकार ने तत्कालीन औपनिवेशिक सरकार के 1936 के एक शाही आदेश (Imperial Order of 1936) का हवाला दिया जिसमें जिसमें वंचित वर्गों की सूची दी गयी थी और इसमें दलित वर्गों की सूची में “भारतीय ईसाई” को शामिल नहीं किया था।

1956 में सिखों को अनुसूचित जाति के रूप में शामिल करने के संशोधन के बाद से, भारत के महापंजीयक का कार्यालय (Registrar General of India: RGI) हिंदू या सिख धर्म के सदस्यों से परे आदेश के दायरे का विस्तार करने में अनिच्छुक रहा है।

दलित बौद्धों और ईसाइयों को शामिल करने के मसले पर जब गृह मंत्रालय (MHA) ने 1978 में राय मांगी तब RGI ने सरकार को आगाह किया था कि अनुसूचित जाति का दर्जा अस्पृश्यता की कुप्रथा से उत्पन्न होने वाली सामाजिक अक्षमताओं से पीड़ित समुदायों के लिए है, और यह हिंदू और सिख समुदायों में प्रचलित है।

यह भी कहा गया था कि इस तरह के कदम से देश भर में अनुसूचित जाति की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि होगी। हालाँकि, जब बौद्ध धर्म में धर्मांतरण करने वालों को अनुसूचित जाति के रूप में शामिल करने के लिए संशोधन 1990 में पारित किया गया, तब RGI के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं थी।

लेकिन 1999 में फिर से RGI का अनुमोदन आवश्यक कर दिया गया

इस मसले पर वर्ष 2001 में भी भारत के महापंजीयक का कार्यालय ने फिर से अपने पूर्व के तर्क को बनाये रखा।

दलित ईसाइयों और मुसलमानों को अनुसूचित जाती के रूप में, अपने 1978 के नोट का उल्लेख करते हुए RGI ने कहा कि दलित बौद्धों की तरह, दलित जो इस्लाम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हुए, वे विभिन्न जाति समूहों के थे, न कि एक जाति से इसलिए उन्हें “एकल नृजातीय समूह” (single ethnic group) के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है जो अनुच्छेद 341 के खंड (2) के तहत SC में शामिल होने के लिए आवश्यक है ।

इसके अलावा, RGI ने यह भी कहा कि चूंकि “अस्पृश्यता” की कुप्रथा हिंदू धर्म और उसकी शाखाओं की एक विशेषता रही है, इसलिए दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को SC के रूप में शामिल करने की अनुमति देने से “अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे गलत समझा जा सकता है” और कहा जायेगा कि भारत “अपनी जाति व्यवस्था को ईसाई और मुसलमानों पर थोपने” की कोशिश कर रहा है।

वर्ष में 2001 के नोट में RGI ने यह भी कहा कि दलित मूल के ईसाई और मुस्लिम धर्मांतरण के कारण अपनी जातिगत पहचान खो चुके हैं और उनके नए धार्मिक समुदाय में अस्पृश्यता की प्रथा प्रचलित नहीं है।

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