उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया

राज्यसभा में विपक्षी सांसदों के छह सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने 13 दिसंबर, 2024 को उच्च सदन के महासचिव को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के खिलाफ महाभियोग की मांग करते हुए एक प्रस्ताव सौंपा।

याचिका में कहा गया है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(4) और 124(5), अनुच्छेद 217(1)(B) तथा अनुच्छेद 218 के साथ पढ़ने पर, एक न्यायाधीश को उन कार्यों के आधार पर पद से हटाया जा सकता है जो “न्यायिक नैतिकता, निष्पक्षता और न्यायपालिका में जनविश्वास को कमजोर करते हैं।”

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(4) में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के महाभियोग की प्रक्रिया का प्रावधान है। अनुच्छेद 218 कहता है कि यही प्रावधान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर भी लागू होंगे। अनुच्छेद 217(1)(B) के अनुसार, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को राष्ट्रपति द्वारा पद से हटाया जा सकता है, बशर्ते कि इसे अनुच्छेद 124(4) के तहत प्रदान की गई प्रक्रिया के अनुसार पूरा किया जाए, जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को हटाने के लिए लागू होती है।

सुप्रीम कोर्ट (SC) या उच्च न्यायालय (HC) के न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव को पारित करने के लिए, लोकसभा और राज्यसभा दोनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन आवश्यक है। साथ ही, प्रत्येक सदन की “कुल सदस्य संख्या” के 50% से अधिक सदस्यों का मतदान प्रस्ताव के पक्ष में होना चाहिए। यदि संसद में यह मतदान पारित हो जाता है, तो राष्ट्रपति एक आदेश जारी करेंगे।

जज इन्क्वारी एक्ट, 1968 में महाभियोग की प्रक्रिया निर्धारित की गई है। इस अधिनियम की धारा 3 के तहत, महाभियोग प्रस्ताव को तभी स्वीकार किया जाएगा जब इसे निचले सदन (लोकसभा) में कम से कम 100 सदस्य और उच्च सदन (राज्यसभा) में कम से कम 50 सदस्य पेश करें। प्रस्ताव पेश होने के बाद, स्पीकर/चेयरमैन को तीन-सदस्यीय जांच समिति का गठन करना होता है। इस समिति का नेतृत्व भारत के मुख्य न्यायाधीश या सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायाधीश द्वारा किया जाता है।

यदि समिति द्वारा न्यायाधीश को दोषी पाया जाता है, तो उसकी रिपोर्ट को उस सदन द्वारा अपनाया जाता है, जहां प्रस्ताव पेश किया गया था। इसके बाद, उसी सत्र में संसद के दोनों सदनों द्वारा राष्ट्रपति को संबोधित करते हुए न्यायाधीश को हटाने की मांग की जाती है।

स्वतंत्रता के बाद से अब तक छह बार किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई, लेकिन कोई भी प्रयास सफल नहीं हुआ। केवल दो मामलों में — न्यायमूर्ति रामास्वामी और न्यायमूर्ति सेन के मामलों में — जांच समितियों ने उन्हें दोषी ठहराने वाली रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।

पहली बार महाभियोग की कार्यवाही 1993 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी के खिलाफ वित्तीय अनियमितता के आधार पर शुरू की गई थी। इस दौरान न्यायाधीश का बचाव वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने संसद के संयुक्त सत्र में किया। यह प्रस्ताव विफल रहा, और न्यायमूर्ति रामास्वामी एक साल बाद सेवानिवृत्त हो गए।

2011 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव पारित हुआ, लेकिन लोकसभा में प्रस्ताव पर चर्चा से कुछ दिन पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उनके इस्तीफे के साथ ही कार्यवाही समाप्त हो गई।

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