सांसदों/विधायकों को रिश्वत के आरोपों पर अदालती कार्यवाही से छूट: मामला सात सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपा गया
सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के तहत सांसदों और विधायकों पर रिश्वत के आरोपों पर अदालती कार्यवाही चलाने से छूट देने के 1998 के अपने निर्णय की समीक्षा के लिए तैयार हो गया है और 20 सितंबर को इसे सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया।
गौरतलब है कि 1998 में पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने माना था कि विधायिका के सदस्यों को संसद (या विधानमंडल) में किसी भी भाषण या वोट देने के लिए रिश्वत के आरोप में आपराधिक मुकदमा का सामना करने से छूट प्राप्त है।
अनुच्छेद 105(2) में कहा गया है कि संसद का कोई भी सदस्य संसद या उसकी किसी समिति में कही गई किसी बात या दिए गए किसी वोट के संबंध में किसी भी अदालत में किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
संक्षेप में, यह प्रावधान सांसदों को अपने कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान दिए गए किसी भी बयान या किए गए कार्य के लिए किसी भी कानूनी कार्रवाई से छूट देता है।
उदाहरण के लिए, सदन में दिए गए बयान के लिए मानहानि का मुकदमा दायर नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 194(2) राज्यों में विधायकों को भी ऐसा ही छूट प्रदान करता है।
इसके अतिरिक्त, यह छूट कुछ ऐसे पदों को भी प्राप्त है जो संसद के सदस्य नहीं हैं। भारत के अटॉर्नी जनरल या मंत्रिमंडल के सदस्य को भी संसद सदस्य नहीं होने के बावजूद सदन में कही गयी बातों के मामले में अदालती कार्यवाही से छूट प्राप्त है। ऐसे मामलों में जहां कोई सदस्य स्वीकार्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा से आगे निकल जाता है तब अदालत के विपरीत, सदन का अध्यक्ष/सभापति इससे निपटेगा।