प्रिवेंटिव डिटेंशन पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने 12 सितंबर को जसीला शाजी बनाम भारत संघ और अन्य (2024) मामले में कहा कि निवारक निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन) में शामिल अधिकारियों के लिए प्रिवेंटिव डिटेंशन के तहत रखे गए व्यक्तियों को हिरासत में लिए जाने के कारणों को होगा और इससे सम्बंधित डाक्यूमेंट्स सौंपना होगा।
न्यायमूर्ति भूषण आर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ के फैसले ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी को मजबूत किया और प्रिवेंटिव डिटेंशन में रखे गए व्यक्ति को ऐसे आदेशों को चुनौती देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 22(5) के तहत उचित अवसर देने के महत्व पर जोर दिया।
पीठ ने फैसला सुनाया कि सभी प्रासंगिक दस्तावेज और बयान हिरासत में लिए गए व्यक्ति को उपलब्ध कराने में विफलता, हिरासत को प्रभावी ढंग से चुनौती देने के उनके अधिकार में बाधा डालती है। पीठ ने कहा कि ऐसी सभी सामग्रियां, जिन पर हिरासत में लेने वाले अधिकारियों ने अपनी व्यक्तिपरक संतुष्टि के लिए भरोसा किया है, हिरासत में लिए गए व्यक्ति को दी जानी चाहिए।
इसने कहा कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।
यह मामला विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम, 1974 (COFEPOSA अधिनियम) के तहत एक निवारक निरोध आदेश से संबंधित था, जिसे मार्च 2024 में केरल उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था।
संविधान का अनुच्छेद 22(5), जो हिरासत में लेने वाले अधिकारियों को हिरासत के आधारों को बताने और उन्हें हिरासत के ऐसे आदेशों का विरोध करने का जल्द से जल्द अवसर प्रदान करने का प्रावधान करता है।
अनुच्छेद 22(3) में प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति प्रिवेंटिव डिटेंशन कानूनों के तहत गिरफ्तार या हिरासत में लिया गया है, तो अनुच्छेद 22 (1) और 22 (2) के तहत गिरफ्तारी और हिरासत के खिलाफ प्रदान की गई सुरक्षा उस व्यक्ति को उपलब्ध नहीं होगी।
प्रिवेंटिव डिटेंशन केवल चार आधारों पर किया जा सकता है: देश की सुरक्षा, पब्लिक आर्डर का संरक्षण; आपूर्ति और आवश्यक सेवाओं और रक्षा का रखरखाव; विदेशी मामले या भारत की सुरक्षा।
निवारक निरोध के तहत हिरासत में लिए व्यक्ति को अनुच्छेद 19 या अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कोई अधिकार नहीं प्राप्त होता है।