मौत की सजा (Death Penalty) के मामले में कैदी का मनोवैज्ञानिक परीक्षण अनिवार्य
सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने मौत की सजा (Death Penalty) के मामले में कैदी के मनोवैज्ञानिक परीक्षण को अनिवार्य कर दिया है। न्यायमूर्ति उदय यू ललित की अगुवाई वाली बेंच ने जांच के दौरान कैदी के आचरण की भी रिपोर्ट देने की मांग की है, जिससे पता चल सके कि फांसी ही एकमात्र विकल्प है या नहीं।
- शीर्ष अदालत ने यह निर्देश बचन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (1980) मामले में दिए गए निर्णय की भावना के सहारे किया है। इस फैसले में आरोपी के संबंध में हालात को बिगाड़ने और कम करने के तुलनात्मक विश्लेषण को जरूरी करते हुए मौत की सजा देने में दुर्लभतम से दुर्लभ (‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’) के सिद्धांत को स्थापित किया है।
- न्यायमूर्ति ललित ने बचन सिंह मामले में सुनाए गए फैसले से प्रेरित होते हुए कहा कि मौत की सजा के मामलों में ‘पूर्ण सहयोग’ से केवल सबूत ही नहीं, बल्कि कैदी के मानसिक स्वास्थ्य की ताजा जानकारी देने की भी जरूरत होगी।
- 1983 के मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद में, सुप्रीम कोर्ट ने “रेयरेस्ट ऑफ द रेयर” के सिद्धांत को स्पष्ट किया और मौत की सजा के मामलों में कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत निर्धारित किए। गंभीर परिस्थितियों में अपराध करने का तरीका, अपराध करने का मकसद, अपराध की गंभीरता और पीड़ितशामिल था। कम करने वाली परिस्थितियों में एक आरोपी के सुधार और पुनर्वास की संभावना, उसका मानसिक स्वास्थ्य और उसका जीवनवृत्त शामिल था।
- वर्ष 2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि फांसी की सजा के क्रियान्वयन में अस्पष्टीकृत देरी मौत की सजा को कम करने का एक आधार हो सकता है , और एक कैदी, उसके रिश्तेदार, या यहां तक कि एक आम चिंतित नागरिक, सजा के न्यूनीकरण की मांग करते हुए एक रिट याचिका दायर कर सकता है। यह माना गया कि मौत की सजा के लंबे समय तक निलंबित रखने से कैदियों पर “अमानवीय प्रभाव” पड़ता है, जिन्हें उनकी दया याचिका के लंबित रहने के दौरान मौत के साये में वर्षों तक इंतजार करने की पीड़ा का सामना करना पड़ता है। इसमें कहा गया है कि अत्यधिक देरी का निश्चित रूप से उनके शरीर और दिमाग पर दर्दनाक प्रभाव पड़ेगा।