पेट्रोलियम भंडार का पता लगाने की नई पद्धति विकसित
इंडिया साइंस वायर
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास के शोधकर्ताओं को एक ऐसी सांख्यिकीय पद्धति विकसित करने में सफलती मिली है, जो सतह के नीचे शैल संरचना के आकलन के साथ-साथ पेट्रोलियम तथा हाइड्रोकार्बन भंडार का पता लगाने में सक्षम है। ऊपरी असम बेसिन में स्थित ‘टिपम फॉर्मेशन’ (Tipam formation) में शैलीय वितरण और हाइड्रोकार्बन संतृप्ति क्षेत्रों पर महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने में इस पद्धति को प्रभावी पाया गया है।
नई विकसित पद्धति का उपयोग भूकंपीय सर्वेक्षणों से प्राप्त आँकड़ों के विश्लेषण के लिए किया गया है। पेट्रोलियम रिजर्व के लिए विख्यात उत्तर असम क्षेत्र के कुओं से संबंधित आँकड़ों को भी इस अध्ययन में शामिल किया गया है। इस पद्धति से शोधकर्ताओं को 2.3 किलोमीटर की गहराई वाले क्षेत्रों में शैलों के वितरण और हाइड्रोकार्बन संतृप्ति क्षेत्रों से संबंधित सटीक जानकारी प्राप्त करने में सफलता मिली है।
भूमिगत शैल संरचनाओं के लक्षणों का पता लगाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। पृथ्वी की सतह के नीचे की संरचना को समझने के लिए भूकंपीय सर्वेक्षण विधियों और कुओं के लॉग डेटा का उपयोग किया जाता है। कुएँ के लॉग में तेल के कुओं की खुदाई के समय दिखाई देने वाली पृथ्वी की विभिन्न परतों का विवरण होता है।
शोधकर्ता बताते हैं कि भूकंपीय सर्वेक्षण के दौरान सतह के भीतर ध्वनिक कंपन भेजे जाते हैं। जब ध्वनि तरंगें विभिन्न चट्टानी परतों से टकराती हैं, तो वे अलग-अलग विशेषताओं के साथ परावर्तित होती हैं। परावर्तित तरंगों को रिकॉर्ड किया जाता है और परावर्तन डेटा का उपयोग करके भूमिगत शैलों की संरचना की छवि बनायी जाती है।
करीब 100 साल से भी पहले ऊपरी असम के डिगबोई तेल क्षेत्र की खोज के बाद असम-अराकान को ‘श्रेणी-I’ बेसिन के रूप में चिह्नित किया गया है। यह दर्शाता है कि यहाँ महत्वपूर्ण मात्रा में हाइड्रोकार्बन भंडार हैं। पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन युक्त भूमिगत शैल संरचनाओं के छिद्रों में पाया जाता है। शोधकर्ता बताते हैं कि असम की तेल समृद्ध घाटियों में पेट्रोलियम भंडार की पहचान के लिए इस क्षेत्र की चट्टानी संरचना के सर्वेक्षण और उनमें हाइड्रोकार्बन संतृप्ति क्षेत्रों का पता लगाने की आवश्यकता है।
आईआईटी मद्रास के पेट्रोलियम इंजीनियरिंग प्रोग्राम, ओशन इंजीनियरिंग विभाग के शोधकर्ता प्रोफेसर राजेश आर. नायर के नेतृत्व में यह अध्ययन एम. नागेंद्र बाबू एवं डॉ वेंकटेश अंबत्ती के सहयोग से किया गया है। यह अध्ययन शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया गया है।
प्रोफेसर राजेश नायर बताते हैं – “भूकंपीय छवियों के कम रिज़ॉल्यूशन और वेल-लॉग और भूकंपीय सर्वेक्षणों से प्राप्त डेटा के संबंध को स्थापित करने में कठिनाई से भूमिगत संरचनाओं की इमेजिंग चुनौतीपूर्ण होती है। हमारी टीम ने जटिल कूप लॉग और भूकंपीय डेटा से हाइड्रोकार्बन क्षेत्र की भविष्यवाणी करने के लिए यह नई पद्धति विकसित की है।”
प्रोफेसर नायर कहते हैं – “तेल युक्त शैलों का पता लगाने के लिए उपसतह संरचनाओं के लक्षणों की पहचान के लिए डेटा एनालिटिक्स विधियों का उपयोग होता है, जो भूकंपीय डेटा और कुओं के लॉग से प्राप्त पेट्रोफिजिकल डेटा के बीच सांख्यिकीय संबंध स्थापित करता है। ये परस्पर संबंध उपसतह के पेट्रोफिजिकल गुणों का अनुमान लगाने में मदद करते हैं।”
शोधकर्ताओं ने अपने विश्लेषण में ‘पॉइसन इम्पीडेंस’ (Poisson impedance inversion) नामक एक उल्लेखनीय प्रवृति की भी पहचान की है। बलुआ पत्थर के भंडार क्षेत्र में द्रव सामग्री की पहचान करने के लिए पॉइसन इम्पीडेंस का उपयोग किया गया है। इसके निष्कर्षों के आधार पर शोधकर्ताओं का दावा है कि पारंपरिक विधियों की तुलना में हाइड्रोकार्बन क्षेत्र का अनुमान लगाने में ‘पोइसन इम्पीडेंस’ (पीआई) पद्धति अधिक प्रभावी पायी गई है।
प्रोफेसर नायर कहते हैं – “तेल और गैस के उत्पादन के लिए वर्तमान में 26 ब्लॉकों की भारत की मेगा अपतटीय निविदा प्रक्रिया चल रही है। ऐसी नई तकनीकों से तेल और गैस कारोबार को काफी बढ़ावा मिल सकता है।” (इंडिया साइंस वायर)