केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह कानून का बचाव किया, कहा- केदारनाथ फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं
भारत सरकार ने 7 मई को एक नोट में सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि केदार नाथ बनाम बिहार राज्य मामले (Kedar Nath Vs State of Bihar Case) में सुप्रीम कोर्ट के 1962 की संविधान पीठ के फैसले, जिसने राजद्रोह कानून (sedition law) की वैधता को बरकरार रखा था, को एक बाध्यकारी मिसाल के रूप में माना जाना चाहिए जो समय की कसौटी पर खरा उतरा है।
- केंद्र के नोट में कहा गया है कि केदारनाथ का फैसला “अच्छा कानून” है। केंद्र ने यह भी कहा है कि धारा 124A के पूर्व में किये गए दुरुपयोग, राजद्रोह कानून को जायज ठहराने वाले 1962 के बाध्यकारी फैसले पर पुनर्विचार करने का आधार नहीं हो सकता ।
- यह तर्क उन याचिकाकर्ताओं के जवाब में आया है जिन्होंने कहा है कि केदारनाथ मामले के फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में देशद्रोह माना गया था, हालांकि देशद्रोह कानून को ताजा चुनौती अनुच्छेद 14 और 21 के प्रावधानों के तहत है, जिस पर पहले विचार नहीं किया गया था।
IPC की धारा 124A: राजद्रोह
- भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के अनुसार, जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा या किसी और तरह से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह का आरोपी है।
- इसमें अधिकतम सजा के रूप में आजीवन कारावास का प्रावधान है।
केदार नाथ बनाम बिहार राज्य मामला
- 1962 के ऐतिहासिक केदार नाथ सिंह मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था। पांच-न्यायाधीशों की पीठ के छह-दशक पुराने फैसले ने धारा 124A (देशद्रोह) को भारतीय दंड संहिता का हिस्सा बने रहने की अनुमति दी थी, हालांकि इसने इसकी उपयोग को सीमित कर दिया था।
- अदालत ने माना कि जब तक हिंसा के लिए उकसाने या आह्वान या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति या सार्वजनिक शांति भंग करने की प्रवृत्ति नहीं हो, तब तक सरकार की आलोचना को देशद्रोह का लेबल नहीं दिया जा सकता है।
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