केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फार्मा-मेडटेक क्षेत्र में राष्ट्रीय नीति PRIP योजना को मंजूरी दी

 केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फार्मा-मेडटेक क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास और नवाचार पर राष्ट्रीय नीति को हरी झंडी दे दी है।

साथ ही कैबिनेट ने वित्त वर्ष 2024 से वित्त वर्ष 28 तक की पांच साल की अवधि के लिए 5,000 करोड़ रुपये के आवंटन के साथ “फार्मा-मेडटेक सेक्टर में अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहन” (Promotion of Research and Innovation in Pharma-MedTech Sector: PRIP) की योजना को भी मंजूरी दे दी।

फार्मा-मेडटेक पर राष्ट्रीय नीति

यह राष्ट्रीय नीति तीन प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित है: रेगुलेटरी फ्रेमवर्क को मजबूत करना, इनोवेशन में निवेश को प्रोत्साहित करना तथा  नवाचार और अनुसंधान के लिए एक इकोसिस्टम को सक्षम करना।

इस नीति का उद्देश्य दवा की खोज और विकास में तेजी लाना, उद्योग और शिक्षा जगत के बीच सहयोग को बढ़ावा देना और अनुसंधान संसाधनों को ऑप्टिमाइज़ करने के लिए मौजूदा नीतियों में सुधार करना है।

PRIP योजना

“प्रमोशन ऑफ रिसर्च एंड इनोवेशन इन फार्मा-मेडटेक सेक्टर (PRIP) योजना” सरकार ने इस विश्वास के साथ  मंजूरी दी है कि भारतीय दवा उद्योग में वैश्विक बाजार में अपनी मौजूदा 3.4 प्रतिशत हिस्सेदारी को वर्ष 2030 तक बढ़ाकर 5 प्रतिशत करे।

5,000 करोड़ रुपये के आवंटन के साथ PRIP योजना, दो घटकों पर केंद्रित है: अनुसंधान बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए मौजूदा संस्थानों के भीतर सेंटर ऑफ एक्सीलेंस (CoEs) की स्थापना, और प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में अनुसंधान को बढ़ावा देना।

इन प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में नई रासायनिक और जैविक इकाइयां, प्रिसिशन मेडिसिन, चिकित्सा उपकरण और एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस  सोल्युशन  जैसे कई क्षेत्र शामिल हैं।  

PRIP योजना का उद्देश्य देश में रिसर्च इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करके भारतीय फार्मा मेड टेक क्षेत्र को लागत आधारित प्रतिस्पर्धात्मकता से इनोवेशन आधारित विकास में बदलना है।

भारत मात्रा के हिसाब से दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा दवा उद्योग है, जिसका मूल्य लगभग 50 बिलियन डॉलर है।

हालांकि भारतीय फार्मा सेक्टर ने वैश्विक स्तर पर सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति की है, लेकिन इसे सक्रिय फार्मास्युटिकल सामग्री (Active Pharmaceutical Ingredients: APIs) और प्रमुख प्रारंभिक सामग्री (Key Starting Materials: KSMs) पर आयात निर्भरता, बायोलॉजिक्स, बायोसिमिलर और अन्य उभरते उत्पादों के विकास में देरी और कम तकनीकी क्षमताएँ होने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। 

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