आत्म-सम्मान विवाह के लिए सार्वजनिक घोषणा की आवश्यकता नहीं है-सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने 28 अगस्त को कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 7(A) के तहत अधिवक्ताओं द्वारा “आत्मसम्मान” विवाह कराने पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है।
प्रमुख तथ्य
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने मद्रास उच्च न्यायालय के 2014 के फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि अधिवक्ताओं द्वारा किए गए विवाह वैध नहीं हैं और “सुयमरियाथाई” या “आत्मसम्मान” विवाह (suyamariyathai or self-respect marriages) को गोपनीय रूप से संपन्न नहीं किया जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि जो वकील अदालत के अधिकारी की हैसियत से नहीं, बल्कि मित्र या रिश्तेदार या सामाजिक कार्यकर्ता जैसी अन्य हैसियत से उपस्थित होते हैं, वे हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 7-(A) के तहत विवाह करा सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के कई फैसलों का हवाला दिया, जिसमें अनुच्छेद 21 के तहत जीवन साथी चुनने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया था।
गौरतलब है कि 17 जनवरी, 1968 को, हिंदू विवाह (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम, 1967 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिली और यह कानून बन गया।
इस संशोधन ने 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम में धारा 7-A डालकर इसे संशोधित किया। हालाँकि, यह संशोधन केवल तमिलनाडु राज्य तक सीमित था।
धारा 7-A “आत्म-सम्मान और धर्मनिरपेक्ष विवाह” पर विशेष प्रावधान से संबंधित है।
यह कानूनी रूप से “किन्हीं दो हिंदुओं के बीच ऐसे किसी भी विवाह” को मान्यता देता है, जिसे “सुयमरियाथाई” या “सेरथिरुथा विवाह” या किसी अन्य नाम से संदर्भित किया जा सकता है।
इस तरह के विवाह रिश्तेदारों, दोस्तों या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में संपन्न होते हैं, जिसमें पक्ष एक-दूसरे को उनकी समझ में आने वाली भाषा में पति या पत्नी घोषित करते हैं।
इसके अलावा, विवाह में प्रत्येक पक्ष एक-दूसरे को माला पहनाता है या दूसरे की उंगली में अंगूठी पहनाता है या “थाली” या मंगल सूत्र बांधता है।
हालाँकि, ऐसे विवाहों को कानून के अनुसार पंजीकृत करना भी आवश्यक है।
तमिलनाडु सरकार द्वारा “सुयमरियाथाई” या “आत्मसम्मान” विवाहों को शामिल करने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में संशोधन करने के पीछे का तर्क विवाह में ब्राह्मण पुजारियों, पवित्र अग्नि और सप्तपदी (सात फेरे) की अनिवार्यता को त्यागकर शादियों को मौलिक रूप से सरल बनाना था।