कंप्रमाइज सेटलमेंट (Compromise settlement)
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने 20 जून को कहा कि विलफुल डिफॉल्टर के साथ सुलह समझौता (compromise settlement) कोई नई बात नहीं है और यह 15 साल से अधिक समय से चल रहा है।
केंद्रीय बैंक ने 8 जून को सुलह समझौता (compromise settlement) और टेक्निकल राइट ऑफ फ्रेमवर्क जारी किया था। RBI ने कहा कि ऋणियों के साथ कंप्रोमाइज सेटलमेंट का उद्देश्य ऋण देने वाली संस्थाओं को अपना धन वसूलने के लिए कई विकल्प उपलब्ध कराना है।
बता दें कि कंप्रमाइज सेटलमेंट आपसी सहमति के जरिए किए गए ऋण के सेटलमेंट को कहा जाता है जहां कोई ऋण अपने ऋण का भुगतान करने का ऑफर करता है और बैंक इस मामले को सेटलमेंट के द्वारा क्लोज करने पर सहमत हो जाते हैं।
हालांकि इस तरह के सेटलमेंट में जितनी राशि बकाया होती है उससे कम पर ही समझौता करना पड़ता है। इस सेटलमेंट में बैंकों को फायदा यह होता है कि सम्पूर्ण ऋण राशि को डिफॉल्ट खाते या NPA में डालने से वे बच जाते हैं। इस तरह बैंकों को थोड़ा बलिदान करना पड़ता है परन्तु उन्हें पूरी राशि से हाथ नहीं धोना पड़ता।
RBI ने यह भी कहा कि विवेकपूर्ण दिशानिर्देश (prudential guidelines) पर्याप्त सुरक्षा उपाय प्रदान करते हैं और कंप्रमाइज सेटलमेंट अधिकार के रूप में ऋणियों के लिए उपलब्ध नहीं है; बल्कि यह ऋण देने वाली संस्थाओं का विवेकाधिकार है अर्थात वे चाहें तो इसके लिए तैयार हो सकते हैं।
केंद्रीय बैंक ने यह भी कहा कि एक स्पष्ट रेगुलेटरी फ्रेमवर्क अन्य विनियमित संस्थाओं, विशेष रूप से कोऑपरेटिव बैंकों को सामान्य समाधान प्रयासों के हिस्से के रूप में कंप्रोमाइज सेटलमेंट करने में सक्षम बनाता है।
केंद्रीय बैंक ने बैंकों को यह भी निर्देश दिया है कि वे उन ऋणियों को नया ऋण देने से पहले कम से कम 12 महीने की न्यूनतम कूलिंग अवधि तय करें, जिन्होंने कंप्रमाइज सेटलमेंट किया है। इसका मतलब यह है कि विलफुल डिफॉल्टर या धोखाधड़ी में शामिल कंपनी कंप्रोमाइज सेटलमेंट के 12 महीने बाद ही नया ऋण ले सकते हैं।
भारतीय रिज़र्व बैंक के वर्गीकरण के अनुसार, यदि ऋणी ने ऋणदाता संस्था को ऋण चुकाने के दायित्वों को पूरा करने में डिफॉल्ट की है, भले ही उनके पास ऋण चुकाने की क्षमता हो, तो इसे ‘विलफुल डिफॉल्टर’ (wilful defaulter) माना जाएगा।