ARTICLE-142: “सुलह की गुंजाइश नहीं होने पर न्यायालय तलाक को मंजूरी दे सकता है”, सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने कहा कि जिन शादियों के बचने की गुंजाइश न हो, उनको सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके खत्म कर सकता है और ऐसे मामलों में किसी पारिवारिक अदालत में पार्टियों को 6-18 महीने तक इंतजार नहीं करना होगा जो हिंदू विवाह अधिनियम के तहत जरूरी है।
प्रमुख तथ्य
आपसी सहमति से तलाक की मंजूरी देने के लिए अनुच्छेद 142 को लागू करने के पहलू पर, शीर्ष अदालत ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-B के तहत शामिल लंबी प्रक्रिया को दोहराया। इस प्रक्रिया के तहत पहले आपसी सहमति से तलाक लेने वाले पति-पत्नी को स्थानीय अदालत में एक संयुक्त याचिका दायर करनी होती थी। इसमें उन्हें यह दावा करना था कि वे एक साल या उससे ज्यादा समय से अलग रह रहे हैं और दोबारा साथ नहीं रह सकते। दोनों को फिर उसी अदालत के समक्ष दूसरा प्रस्ताव देने से पहले छह से 18 महीने तक इंतजार करना पड़ा। इस बार उन्हें तलाक लेने के अपने फैसले की पुष्टि करनी थी। इसके बाद, न्यायाधीश उन्हें आपसी सहमति से तलाक की डिक्री देने से पहले एक औपचारिक जांच करते थी।
जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट बेंच ने कहा कि अगर आपसी सहमति हो तो कुछ शर्तों के साथ तलाक के लिए अनिवार्य 6 महीने के वेटिंग पीरियड को भी खत्म किया जा सकता है। संविधान पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति ए एस ओका, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति जे के माहेश्वरी भी शामिल हैं।
अनुच्छेद 142
अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को उन स्थितियों में पक्षकारों के बीच “पूर्ण न्याय” करने के लिए एक अद्वितीय शक्ति प्रदान करता है, जहां कभी-कभी, कानून समाधान उपाय प्रदान नहीं कर सकता है।
बता दें कि अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत शक्तियां प्रकृति में व्यापक हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने समय के साथ अपने निर्णयों के माध्यम से इसके दायरे और सीमा को परिभाषित किया है।
प्रेम चंद गर्ग का मामला: सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142(1) के तहत न्यायालय की शक्तियों के प्रयोग के लिए यह कहकर सीमांकन किया कि पार्टियों के बीच पूर्ण न्याय करने का आदेश न केवल संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिए, बल्कि यह प्रासंगिक वैधानिक कानूनों के मूल प्रावधानों के साथ असंगत भी नहीं होना चाहिए।
यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1991 में UCC को भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए मुआवजे के रूप में $470 मिलियन का भुगतान करने का आदेश दिया।
1998 में, ‘सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ में शीर्ष अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियां पूरक प्रकृति की हैं और इसका उपयोग किसी मूल कानून को बदलने या ओवरराइड करने के लिए नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 142 की आलोचना
इस अनुच्छेद के तहत शक्तियों की व्यापक प्रकृति की इस आधार पर आलोचना की जाती रही है कि वे मनमानी और अस्पष्ट हैं। यह भी कि न्यायालय के पास व्यापक विवेकाधिकार है, और यह “पूर्ण न्याय” टर्म के लिए मानक परिभाषा के नहीं होने के कारण मनमाने ढंग से इसका इस्तेमाल करने की अनुमति देता है।
“पूर्ण न्याय” को परिभाषित करना एक व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) कार्य है और अलग-अलग मामलों में इसकी व्याख्या भिन्न हो सकती है।
यह भी विधायिका और कार्यपालिका के विपरीत, न्यायपालिका को अपने कार्यों के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है।
शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत के आधार पर भी इस अनुच्छेद की व्यापक शक्ति की आलोचना की गई है।