कैविएट (caveat) क्या है?
भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली शीर्ष अदालत की एक पीठ ने 24 फरवरी को, “शैलेंद्र मणि त्रिपाठी बनाम भारत संघ और अन्य” मामले में कैविएट (caveat) दायर करने के लिए एक कानून की छात्रा को फटकार लगाई। बता दें कि “शैलेंद्र मणि त्रिपाठी बनाम भारत संघ और अन्य” मामले में भारतीय संस्थानों में महिला छात्रों और कामकाजी महिलाओं के लिए मासिक धर्म अवकाश की मांग की गयी है।
इस मामले में न्यायालय ने कहा कि मासिक धर्म अवकाश के साथ कई पेचीदगियां जुड़ी हुईं हैं और इस मामले में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय निर्णय ले सकता है। हालांकि इस विषय पर दायर कैविएट (caveat) की न्यायालय ने प्रचार पाने की कवायद करार दिया।
कैविएट क्या है?
आम बोलचाल की भाषा में caveat “चेतावनी” या “सावधानी” को संदर्भित करती है। हालांकि, कानूनी शब्दावली में इसके अलग मायने है। विधिक शब्दावली में caveat एक “औपचारिक नोटिस है जो अदालत से अनुरोध करती है कि वह कैविएट दर्ज करने वाले व्यक्ति को सुने बिना किसी विषय पर निर्णय देने से परहेज करे। कैवियट दर्ज करने वाले व्यक्ति को “कैविएटर” कहा जाता है।
विधि आयोग की सिफारिश के बाद 1976 के संशोधन अधिनियम द्वारा caveat शब्द सिविल प्रक्रिया संहिता में जोड़ा गया। सिविल प्रक्रिया संहिता (Civil Procedure Code: CPC) की धारा 148A के तहत किसी व्यक्ति को caveat दाखिल करने का अधिकार दिया गया है।
इसके अनुसार यदि कोर्ट में किसी मामले पर याचिका दाखिल हुई हुई है, या हो सकती है और उस पर सुनवाई होनी है या हो सकती है तो कोई भी व्यक्ति इस तरह के मामले की सुनवाई पर अदालत के सामने पेश होने का अधिकार दावा कर सकता है, इसके संबंध में एक caveat दर्ज कर सकता है।
हालांकि कैविएटर को उस व्यक्ति को “पंजीकृत डाक” द्वारा कैवियट का नोटिस देने की भी आवश्यकता होती है, जिसने याचिका दायर की हुई है हैं।
हालांकि, “कैविएट” शब्द को कलकत्ता उच्च न्यायालय के 1978 में “निर्मल चंद्र दत्ता बनाम गिरिंद्र नारायण रॉय” के निर्णय को छोड़कर कहीं भी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है।
निर्मल चंद्र दत्ता बनाम गिरिंद्र नारायण रॉय मामले में अदालत ने इस शब्द को परिभाषित करते हुए कहा कि कैविएट दर्ज करने वाले पक्ष को नोटिस दिए बिना कोई कार्रवाई या निर्णय नहीं दिया जाना चाहिए।
कोई भी व्यक्ति किसी मामले में पक्षकार होने के अंदेशे के आधार पर कोर्ट के समक्ष एक कैविएट दाखिल करके यह कह सकता है कि अगर उससे संबंधित मामला कोर्ट में लाया जाता है तब उसे सुने बगैर मामले में किसी प्रकार का कोई भी निर्णय नहीं दिया जाए। ऐसा कैविएट किसी कोर्ट में अपने विरुद्ध भविष्य में दायर होने वाली किसी याचिका में पक्षकार बनने के अंदेशे पर दिया जाता है। हो सकता है कि न्यायालय में किसी प्रकार का कोई मुकदमा दायर नहीं हुआ हो लेकिन मुकदमा दायर होने की संभावना होती है तब भी caveat दर्ज किया जा सकता है ।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 148(A ) की उपधारा 5 के अंतर्गत स्पष्ट किया गया है कि कोई भी केवियट केवल 90 दिनों तक ही वैध होता है। 90 दिनों के बाद यह स्वतः समाप्त हो जाता है।